Tuesday, December 8, 2009

Shri Kalabhairava Ashtakam


॥ॐ श्री महागणाधिपतये नमः॥
॥ क्रीं कालिकायै नमो नमः॥
॥ क्रीं कालभैरवाय नमः॥




देवराजसेव्यमानपावनान्घ्रिपङ्कजं

व्यालयज्ञसूत्रमिन्दुशेखरं कृपाकरं

नारदादि योगिवृन्द वन्दितं दिगम्बरं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥१॥



भानुकोटिभास्वरं भवाब्धितारकंपरम्

नीलकन्ठमीप्सितार्थदायकं त्रिलोचनं

कालकालमंबुजाक्षमक्षशूलमक्षरं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥२॥



शूलटङ्कपाशदन्डपाणिमादिकारणं

श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयं

भीमविक्रमं प्रभुं विचित्रताण्डवप्रियं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥३॥



भुक्तिमुक्तिदायकं प्रशस्तचारुविग्रहं

भक्तवत्सलं स्थितं समस्तलोक विग्रहं

विनिक्वणन्मनोग़्यहेमकिङ्किणीलसत्कटिं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥४॥



धर्मसेतुपालकं त्वधर्ममार्गनाशनं

कर्मपाशमोचकं सुशर्मधायकं विभुं

स्वर्णवर्णशेषपाशशोभिताङ्गमण्दलं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥५॥



रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकं

नित्यमद्वितीयमिष्तदैवतं निरंजनं।

मृत्युदर्पनाशनं करालदंष्त्रमोक्षणं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥६॥



अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसंततिं

दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनं।

अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥७॥



भूतसंघनायकं विशालकीर्तिदायकं

काशिवासलोकपुण्यपापशोधकं विभुं

नीतिमार्ग कोविदं पुरातनं जगत्पतिं

काशिकापुराधिनाथकालभैरवं भजे॥८॥


कालभैरवाष्टकं पठन्ति ये मनोहरं ज्ञानमुक्तिसाधनं विचित्रपुण्यवर्धनं ।
शोकमोहदैन्यलोभकोपतापनाशनं प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिं नरा ध्रुवं॥

॥इति श्रीमद् शङ्कराचर्य विरचितं कालभैरवाष्टकं सम्पूर्णम्॥

Friday, December 4, 2009

CharanaShringaRahita Nataraja Stotram



॥श्री गणेशाय नमः॥

॥ श्री चरणशृङ्गरहित नटराज स्तोत्रं॥

सदञ्चित मुदञ्चित निकुञ्चित पदं झलझलञ्चलित मञ्जु कटकं
पतञ्जलि दृगञ्जन मनञ्जन मचञ्चलपदं जनन भञ्जन करं।
कदम्बरुचिमम्बरवसं परमम्बुद कदम्ब कविडम्बक कगलं
चिदम्बुधि मणिं बुध हृदम्बुज रविं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥१॥

हरं त्रिपुर भञ्जनं अनन्तकृतकङ्कणं अखण्डदय मन्तरहितं
विरिञ्चिसुरसंहतिपुरन्धर विचिन्तितपदं तरुणचन्द्रमकुटं।
परं पद विखण्डितयमं भसित मण्डिततनुं मदनवञ्चन परं
चिरन्तनममुं प्रणवसञ्चितनिधिं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥२॥

अवन्तमखिलं जगदभङ्ग गुणतुङ्गममतं धृतविधुं सुरसरित्‌-
तरङ्ग निकुरम्ब धृति लम्पट जटं शमनदम्भसुहरं भवहरं।
शिवं दशदिगन्तर विजृम्भितकरं करलसन्मृगशिशुं पशुपतिं
हरं शशिधनञ्जयपतङ्गनयनं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥३॥

अनन्तनवरत्नविलसत्कटककिङ्किणिझलं झलझलं झलरवं
मुकुन्दविधि हस्तगतमद्दल लयध्वनिधिमिद्धिमित नर्तन पदं।
शकुन्तरथ बर्हिरथ नन्दिमुख शृङ्गिरिटिभृङ्गिगणसङ्घनिकटं
सनन्दसनक प्रमुख वन्दित पदं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥४॥

अनन्तमहसं त्रिदशवन्द्य चरणं मुनि हृदन्तर वसन्तममलं
कबन्ध वियदिन्द्ववनि गन्धवह वह्निमख बन्धुरविमञ्जु वपुषं।
अनन्तविभवं त्रिजगन्तर मणिं त्रिनयनं त्रिपुर खण्डन परं
सनन्द मुनि वन्दित पदं सकरुणं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥५॥

अचिन्त्यमलिवृन्द रुचि बन्धुरगलं कुरित कुन्द निकुरम्ब धवलं
मुकुन्द सुर वृन्द बल हन्तृ कृत वन्दन लसन्तमहिकुण्डल धरं।
अकम्पमनुकम्पित रतिं सुजन मङ्गलनिधिं गजहरं पशुपतिं
धनञ्जय नुतं प्रणत रञ्जनपरं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥६॥

परं सुरवरं पुरहरं पशुपतिं जनित दन्तिमुख षण्मुखममुं
मृडं कनक पिङ्गल जटं सनकपङ्कज रविं सुमनसं हिमरुचिं।
असङ्घमनसं जलधि जन्मकरलं कवलयन्त मतुलं गुणनिधिं
सनन्द वरदं शमितमिन्दु वदनं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥७॥

अजं क्षितिरथं भुजगपुङ्गवगुणं कनक शृङ्गि धनुषं करलसत्‌
कुरङ्ग पृथु टङ्क परशुं रुचिर कुङ्कुम रुचिं डमरुकं च दधतमं।
मुकुन्द विशिखं नमदवन्ध्य फलदं निगम वृन्द तुरगं निरुपमं
सचण्डिकममुं झटिति संहृतपुरं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥८॥

अनङ्गपरिपन्थिनमजं क्शिति धुरन्धरमलं करुणयन्तमखिलं
ज्वलन्तमनलं दधतमन्तकरिपुं सततमिन्द्रमुखवन्दितपदं।
उदञ्चदरविन्दकुल बन्धुशत बिम्बरुचि संहति सुगन्धि वपुषं
पतञ्जलिनुतं प्रणवपञ्जर शुकं परचिदम्बर नटं हृदि भज ॥९॥

इति स्तवममुं भुजगपुङ्गव कृतं प्रतिदिनं पठति यः कृतमुखः
सदः प्रभुपद द्वितयदर्शनपदं सुललितं चरणशृङ्ग रहितं।
सरःप्रभव सम्भव हरित्पति हरिप्रमुख दिव्यनुत शङ्करपदं
स गच्छति परं न तु जनुर्जलनिधिं परमदुःखजनकं दुरितदं ॥१०॥

॥इति श्री पतञ्जलि महर्षि कृत श्री चरणशृङ्गरहित नटराज स्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

Monday, November 23, 2009

SankataNashana Ganesha Stotram


॥सङ्कटनाशन गणेश स्तोत्रं॥

॥श्रीगणेशाय नमः॥


। नारद उवाच ।

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकं।
भक्तावासं स्मरेनित्यं आयुःकामार्थसिद्धये॥ १॥

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकं।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥ २॥

लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टकम्॥ ३॥

नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकं।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥ ४॥

द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यत्पठेन्नरः।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरंप्रभुः॥ ५॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनं।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिं॥ ६॥

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्‌भिर्मासैः फलं लभेत्‌।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥ ७॥

अष्टेभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत्‌।
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥ ८॥

॥ इति श्रीनारदपुराणे संकटनाशनं गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥


MahaGanesha Pancharatnastotram



॥महागणेश पञ्चरत्नस्तोत्रम्॥

॥श्रीगणेशाय नमः॥

मुदाकरात्तमोदकं सदाविमुक्तिसाधकं
कलाधरावतंसकं विलासिलोकरञ्जकम्।
अनायकैकनायकं विनाशितेभदैत्यकं
नताशुभाशुनाशकं नमामि तं विनायकम्॥१॥


नतेतरातिभीकरं नवोदितार्कभास्वरं
नमत्सुरारिनिर्जरं नताधिकापदुद्धरम्।
सुरेश्वरं निधीश्वरं गजेश्वरं गणेश्वरं
महेश्वरं तमाश्रये परात्परं निरन्तरम्॥२॥


समस्तलोकशङ्करं निरस्तदैत्यकुञ्जरं
दरेतरोदरं वरं वरेभवक्त्रमक्षरम्।
कृपाकरं क्षमाकरं मुदाकरं यशस्करं
मनस्करं नमस्कृतां नमस्करोमि भास्वरम्॥३॥


अकिञ्चनार्तिमार्जनं चिरन्तनोक्तिभाजनं
पुरारिपूर्वनन्दनं सुरारिगर्वचर्वणम्।
प्रपञ्चनाशभीषणं धनञ्जयादिभूषणं
कपोलदानवारणं भजे पुराणवारणम्॥४॥


नितान्तकान्तदन्तकान्तिमन्तकान्तकात्मजं
अचिन्त्यरूपमन्तहीनमन्तरायकृन्तनम्।
हृदन्तरे निरन्तरं वसन्तमेव योगिनां
तमेकदन्तमेव तं विचिन्तयामि सन्ततम्॥५॥

महागणेश्पञ्चरत्नमादरेण योऽन्वहं प्रगायति प्रभातके हृदि स्मरन् गणेश्वरम्।
अरोगतामदोषतां सुसाहितीं सुपुत्रतां समाहितायुरष्टभूतिमभ्युपैति सोऽचिरात् ॥

इति श्रीशङ्करभगवतः कृतौ श्री महागणेश पञ्चरत्नस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

Thursday, September 3, 2009

Suvarnamala Stuti

॥ॐ ह्रीं गं ह्रीं महागणेशाय नमः स्वाहा॥


॥श्री सुवर्णमालास्तुतिः॥


ईश गिरीश नरेश परेश महेश बिलेशय भूषण भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥

उमया दिव्य सुमङ्गल विग्रह यालिङ्गित वामाङ्ग विभो।
ऊरी कुरु मामज्ञमनाथं दूरी कुरु मे दुरितं भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥१॥

ऋषिवर मानस हंस चराचर जनन स्थिति लय कारण भो।
अन्तःकरण विशुद्धिं भक्तिं च त्वयि सतिं प्रदेहि विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥२॥

करुणावरुणालयमयिदास उदासस्तवोचितो न हि भो।
जय कैलाश निवास प्रमथ गणाधीश भू सुरार्चित भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥३॥

झनुतक झङ्किणु झनुतत्किटतट शब्दैर्नटसि महानट भो।
धर्मस्थापन दक्ष त्रयक्ष गुरो दक्ष यज्ञ शिक्षक भो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥४॥

बलमारोग्यं चायुस्त्वद्गुण रुचितां चिरं प्रदेहि विभो।
भगवन् भर्ग भयापह भूतपते भूतिभूषिताङ्ग विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥५॥

शर्व देव सर्वोत्तम सर्वद दुर्वृत्तगर्वहरण विभो।
षड् रिपु षडूर्मि षड्विकार हर सन्मुख षन्मुख जनक विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥६॥

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मे त्येतत्लक्षण लक्षित भो।
हाऽहाऽहूऽहू मुख सुरगायक गीता पदान पद्य विभो।
साम्ब सदाशिव शम्भो शङ्कर शरणं मे तव चरणयुगं॥७॥

॥ इति श्री शङ्कराचार्य कृत सुवर्णमालास्तुतिः॥

Dakshinamurty Stotram


गुरुवे सर्वलोकानाम् । भेषजे भवरोगिणाम्॥
निधये सर्वविद्यानाम्। दक्षिणामूर्तये नमः॥

                                                           
॥ श्री दक्षिणामूर्ती स्तोत्रं॥
                                                                 

 
विश्वं दर्पण दृश्यमान नगरीतुल्यं निजान्तरगतं
पश्यन्नात्मनिमायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया।
यत्साक्षात् कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये॥१॥

बीजस्यान्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्रान्ग्निर्विकल्पं पुनः
मायाकल्पित देशकालकलना वैचित्र्य चित्रीकृतं।
मायावीवविजृम्भयत्यपि महायोगी व स्वेच्छया
तस्मै श्री गुरुमूर्तये नम इदं श्री दक्षिणामूर्तये॥२॥

यस्यैव स्फुरणम् सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्।
यत्साक्षात्करणात्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ

नानाछिद्रघटोदरस्थित महादीपप्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरण द्वारा बहि स्पन्दते।
ज्ञानामीति तमेवभान्तमनुभात्येतत् सम्स्तं जगत्

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः।
मायाशक्तिविलासकल्पित महाव्यामोहसम्हारिणे

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दु सदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसम्हरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।
प्रागस्वाप्समितिप्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते

बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिशु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमान महमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसंबंधतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मनाभेदतः।
स्वप्ने जागृति वा य एश पुरुषो मायापरिभ्रामितः
भूरम्भांस्यनिलोऽनलोम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्याष्टकं।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोः

॥ फल श्रुति॥

सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननात्ध्यानाच्छ सङ्कीर्तनात्।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्धयेत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतं॥

॥ॐ नमो भगवते दक्षिणामूर्तये मह्यं मेधा प्रज्ञां प्रयच्छ स्वाहा॥

Tuesday, September 1, 2009

Shiva Tandava Stotram




॥ श्री गणेशाय नमः॥

॥श्रीशिवताण्डवस्तोत्रं॥

जटाटवीगलज्जवलप्रवाहपावतिस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्ड्मन्निनादमड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥१॥

जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिम्पनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरी विराजमान मूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोर चन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥२॥

धराधरेन्द्रनन्दिनी विलासबन्धुबन्धुरे-
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि-
क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि॥३॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणा मणिप्रभा-
कदम्ब कुंकुमद्रव प्रलिप्त दिग्वधू मुखे।
मदान्ध सिंधुरस्फुरत् त्वगुत्तरीय मेदुरे
मनोविनोदमद्भुतं विभर्तु भूतभर्तरि॥४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्य शेष लेख शेखर
प्रसून धूलि धूरणी विधूसराङ्घ्रि पीठभूः।
भुजङ्गराजमालय निबद्ध जाट जूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोर बन्धु शेखर॥५॥

ललाट चत्वर ज्वलद्धनञ्जय स्फुलिङ्गभा
निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम्।
सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरम्
महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः॥६॥

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्वलद्-
धनञ्जयाहुतिकृत प्रचण्ड पञ्च-सायके।
धराधरेन्द्र-नन्दिनी कुचाग्र-चित्र-पत्रक-
प्रकल्पनैक-शिल्पिनी त्रिलोचने रतिर्मम॥७॥

नवीन-मेघमण्डली निरुद्ध-दुर्धरस्फुरत्-
कुहू-निशीथिनि तमः प्रबन्ध-बद्धकन्धरः।
निलिम्प-निर्झरी-धर स्तनोतुत्कृत्तिसिन्धुरः
कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगत्-धुरंधरः॥८॥

प्रफ्फुलनीलपङ्कज-प्रपञ्च-कालिमप्रभा-
वलम्बिकन्ठकन्धली रुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं -
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे॥९॥

अखर्व-सर्व-मङ्गला कलाकदम्ब-मञ्जरी
रस-प्रवाह-माधुरी विजृम्भणा-मधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे।१०॥

जयत्वद-भ्रविभ्रम-भ्रमद्-भुजङ्गमश्वसद्
विनिर्गमत्क्रमस्फुरत् करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्-धिमिद्-धिमिद्-ध्वनन्मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल
ध्वनिक्रम प्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥११॥

दृषद्विचित्रकल्पयो भुजङ्ग मौक्तिक स्रजो-
र्गरिषठ रत्न लोष्ठयोः सुहृद्-विपक्ष पक्षयोः।
तृणारविन्द-चक्षुषोः प्रजा मही-महेन्द्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम्॥१२॥

कदा निलिम्पनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेतिमन्त्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्॥१३॥

इमं ही नित्यमेव मुक्तम्-उत्तमोत्तमं स्तवं
पठन् स्मरन् ब्रुवन् नरो विशुद्धमेति सन्ततम्।
हरै गुरौ सुभक्तिमाशुयातिनान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम्॥१४॥

पूजावसानसमये दशवक्त्र्वगीतम् यः
शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्यस्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः॥

॥इति श्रीरावण विरचितं शिवताण्डवस्तोत्रं सम्पूरणम्॥

Shiva Shadakshara Stotram




॥ॐ गं गणपतये नमः॥

॥श्री शिवषड्क्षर स्तोत्रम्॥

ॐकारं बिन्दु संयुक्तं नित्यम् ध्यायन्ति योगिनः
कामदम् मोक्षदम् चैव ॐकारय नमो नमः ॥१॥

नमन्ति ऋषियो देव नमन्ति अप्सरसांगणाः
नरा नमन्ति देवेशम् नकारय नमो नमः ॥२॥

महादेवम् महात्मानम् महाध्यानपरायणम्
महापाप हरम् देवम् मकारय नमो नमः ॥३॥

शिवम् शान्तम् जग्नन्नाथम् लोकानुग्रह कारकम्
शिवमेकपदम् नित्यम् शिकारय नमो नमः ॥४॥

वाहनम् वृषभोयस्य वासुकि कन्ठ भूषणम्
वामे शक्ति धरं देवम् वकारय नमो नमः॥५॥

यत्र यत्र स्थितो देव सर्व व्यापि महेश्वरः
यो गुरुः सर्व देवानाम् यकारय नमो नमः॥६॥

॥ षडक्षरमिदम् स्तोत्रम् यः पठे शिव सन्निधौ शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
॥ इति श्री रुद्रयामले उमामहेश्वरसंवादे षडक्षरस्तोत्रं संपूर्णम्॥

Mahishasuramardini Stotram



॥ महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रं॥

अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनी विश्वविनोदिनी नन्दनुते
गिरिवर विन्ध्यशिरोधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिश्नुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुंबिनि भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरदर्शिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्विषमोषिणि घोषरते।
दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥२॥

अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।
निज भुज दण्ड निपाथित चण्ड विपाथित मुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥३॥

धनुरनु संग रणक्षणसंग परिस्फुर दंग नटत्कटके
कनकपिशंग पृषत्कनिषंग रसद्‌भटशृंग हताबटुके।
कृत चतुरङ्ग बलक्षिति रङ्ग घटद्‌बहुरङ्ग रटद्‌बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥४॥

जय जय जप्य जयेजय शब्द परस्तुति तत्पर विश्वनुते
झन्झण झिञ्झिमि झिंकृत नूपुर सिंजित मोहित भूतपते।
नटित नटार्धनटीनटनायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥५॥

अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहर कांतियुते
श्रित रजनी रजनी रजनी रजनी रजनीकर वक्त्रवृते।
सुनयन विभ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमर भ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥६॥

सहित महाहव मल्लम तल्लिक मल्लित रल्लिक मल्लरते
सिरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक चिल्लिक भिल्लिक वर्गवृते।
सितकृत फुल्लिसमुल्लसितारुण तल्लजपल्लवसललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥७॥

कमलदलामल कोमलकांति कला ललितामल भाललते
सकल विलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।
अलिकुल सङ्कुल कुंवलय मण्डल मौलिमिलद्‌बकुलाधि कुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥८॥

अयि जगदंब मदंब कदंब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय शृंग निजालय मध्यगते।
मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि कैटभ भंजिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥ ९॥

कर मुरलीरववीजित कूजित लज्जित कोकिल मञ्जुरते
मिलित मिलिन्द मनोहर गुञ्जित रंजितशैलनिकुञ्जगते।
निजगण भूत महाशबरीगण रंगण संमृत केलिरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥१०॥

अयि मयी दीनदयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननीति यथाऽसि तथाऽसि ममाममतासिरमे ।
यदुचितमत्र भवत्युररि कुरुतादुरुतापमपातुरमे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥११॥

॥ॐ साम्बसदाशिवाय नमः॥

UmaMaheshvara Stotram



॥ उमामहेश्वर स्तोत्रम्॥

नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्याम्‌
परस्पराश्लिष्ट व पूः धराभ्याम्‌।
नागेन्द्रकन्या वृषकेतनाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १॥

नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्याम्‌
नमस्कृताभीष्ट वरप्रदाभ्याम्‌।
नारायणेनार्चित पादुकाभ्यां
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ २॥

नमः शिवाभ्यां वृषवाहनाभ्याम्‌
विरञ्चि विष्णु इन्द्र सुपूजिताभ्याम्
विभूतिपाटीर विलेपनाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ३॥

नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्याम्
जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम्‌।
जम्भारिमुख्यै अभिवन्दिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ४॥

नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्याम्‌
पञ्चाक्षरी पञ्जररञ्जिताभ्याम्‌।
प्रपञ्चसृष्टिस्थिति संहृताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ५॥

नमः शिवाभ्याम् अतिसुन्दराभ्याम्‌
अत्यन्तम् आसक्त हृदम्बुजाभ्याम्‌।
अशेषलोकैक हितङ्कराभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ६॥

नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्याम्‌
कङ्कालकल्याण व पूः धराभ्याम्‌।
कैलासशैलस्थित देवताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ७॥

नमः शिवाभ्याम् अशुभापहाभ्याम्‌
अशेषलोकैक विशेषिताभ्याम्‌।
अकुण्ठिताभ्याम्‌ स्मृतिसंभृताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ८॥

नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्याम्‌
रवीन्दुवैश्वानर लोचनाभ्याम्‌।
राकाशशाङ्काभ मुखाम्बुजाभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ९॥

नमः शिवाभ्यां जटिलन्धरभ्याम्‌
जरामृतिभ्यां च विवर्जिताभ्याम्‌।
जनार्दनाब्जोद्भव पूजिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १०॥

नमः शिवाभ्यां विषमेक्षणाभ्याम्‌
बिल्वच्छदा मल्लिकदामभृद्भ्याम्‌।
शोभावती शान्तवतीश्वराभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ ११॥

नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्याम्‌
जगत् रयी रक्षण बद्धहृद्भ्याम्‌।
समस्त देवासुरपूजिताभ्याम्‌
नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम्‌॥ १२॥

स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्याम्‌ भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः।
स सर्वसौभाग्य फलानि भुङ्क्ते शतायुरान्ते शिवलोकमेति॥

॥इति उमामहेश्वरस्तोत्रं सम्पूर्णम्‌॥

Shri Hanuman Vadavanala Stotram





॥श्री हनुमान वडवानलस्तोत्रम्॥

॥श्रीगणेशाय नमः॥

ॐ अस्य श्री हनुमान वडवानलस्तोत्रमन्त्रस्य
श्रीरामचन्द्र ऋषिः, श्रीवडवानलहनुमान देवता,
मम समस्तरोगप्रशमनार्थं, आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं,
समस्तपापक्षयार्थं, सीतारामचन्द्रप्रीत्यर्थं
हनुमान वडवानलस्तोत्रजपमहं करिष्ये॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्री महाहनुमते प्रकटपराक्रम
सकलदिग्मण्डलयशोवितान धवलीकृतजगत्त्रितय वज्रदेह
रुद्रावतार लङ्कापुरीदहन उमामयमन्त्र उदधिबन्धन
दशशिरःकृतान्तक सीताश्वसन वायुपुत्र अञ्जनीगर्भसम्भूत
श्रीरामलक्ष्मणानन्दकर कपिसैन्यप्राकार सुग्रीवसाह्य
रणपर्वतोत्पाटन कुमारब्रह्मचारिन् गभीरनाद
सर्वपापग्रहवारण सर्वज्वरोच्चाटन डाकिनीविध्वंसन॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महावीरवीराय सर्वदुःखनिवारणाय
ग्रहमण्डल सर्वभूतमण्डल सर्वपिशाचमण्डलोच्चाटन
भूतज्वर एकाहिकज्वर द्वाहिकज्वर त्र्याहिकज्वर चातुर्थिकज्वर-
सन्तापज्वर विषमज्वरतापज्वर माहेश्वरवैष्णवज्वरान् छिन्धि छिन्धि
यक्षब्रह्मराक्षसभूतप्रेतपिशाचान् उच्चाटय उच्चाटय॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः आं हां हां हां हं औं सौं एहि एहि
ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ हं ॐ नमो भगवते श्रीमहाहनुमते
श्रवणचक्षुर्भूतानां शाकिनीडाकिनीनां विषमदुष्टानां
सर्वविषं हर हर आकाशभुवनं भेदय भेदय छेदय छेदय
मारय मारय शोषय शोषय मोहय मोहय ज्वालय ज्वालय
प्रहारय प्रहारय सकलमायां भेदय भेदय॥

ॐ ह्रां ह्रीं ॐ नमो भगवते महाहनुमते सर्व ग्रहोच्चाटन
परबलं क्षोभय क्षोभय सकलबन्धनमोक्षणं कुरु कुरु
शिरःशूलगुल्मशूलसर्वशूलान्निर्मूलय निर्मूलय
नागपाशानन्तवासुकितक्षककर्कोटककालियान्
यक्षकुलजलगतबिलगतरात्रिञ्चरदिवाचर
सर्वान्निर्विषं कुरु कुरु स्वाहा॥

राजभय चोरभय परमन्त्र परयन्त्र परतन्त्र परविद्याः छेदय छेदय
स्वमन्त्र स्वयन्त्र स्वतन्त्र स्वविद्याः प्रकटय प्रकटय
सर्वारिष्ट नाशय नाशय सर्वशत्रुः नाशय नाशय
असाध्यं साधय साधय हुं फट् स्वाहा॥

॥ इति श्रीविभीषणकृतं हनुमद्वडवानलस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥

Ganesha Atharvasheersham




॥ श्री गणेश अथर्वशीर्ष॥

॥ शान्ति पाठ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयां देवः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः॥१॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
ॐ शान्तिः॥ शान्तिः॥ शान्तिः॥

॥ अथ श्री गणेश अथर्वशीर्षं व्याख्यस्यामः॥

ॐ नमस्ते गणपतये॥
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि॥ त्वमेव केवलं कर्ताऽसि॥
त्वमेव केवलं धर्ताऽसि॥ त्वमेव केवलं हर्ताऽसि॥
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि॥ त्वं सक्षादात्मसि नित्यं॥ १॥

॥ स्वरूप तत्त्व॥

ऋतं वच्मि
सत्यम् वच्मि॥ २॥

अव त्वं माम्॥ अव वक्तारं॥
अव श्रोतारं॥ अव दातारं॥
अव धातारं॥ अवानूचानवम शिष्यं॥
अव पुरस्तात्॥ अवो उत्तरातात्॥
अव दक्षिणातात्॥ अव चोर्ध्वातात्॥
अवाधरातात्॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात्॥ ३॥

त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः॥
त्वंआनन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः॥
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितियोसि॥
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि॥
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि॥ ४॥

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जयते॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति॥
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलोऽ नभः॥
त्वं चत्वारि वाक्पदानि॥ ५॥

त्वं गुणत्रयातीतः॥ त्वं देहत्रयातीतः॥
त्वं कालत्रयातीतः॥ त्वं अवस्थात्रयातीतः॥
त्वं मूलाधार स्थितोसिनित्यं॥
त्वं शक्तित्रयात्मकः॥
त्वं योगिनो ध्यायन्ति नित्यं॥
त्वं ब्रह्मस्त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं
अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमस्त्वं
ब्रह्मभूर्भुवस्वरोम्॥ ६॥

॥ गणेश मन्त्र॥

गणादिं पूर्वमुच्चारय वर्णादिं तदनन्तरं॥
अनुस्वारः परतरः॥ अर्धेन्दुलसितं॥
तारेण ऋद्धं॥ एतत्त्व मनुस्वरूपं॥
गकारः पूर्वरुपं॥ अकारो मध्यं रूपं॥
अनुस्वारश्चान्त्य रूपं॥ बिन्दुरुत्तररूपं॥
नादानुसन्धानं॥ संहिता सन्धिः॥
सैषा गणेशविद्या॥ गणक ऋषिः॥
निचृद्गायत्रि छन्दः॥ गणपतिर्देवता॥
ॐ गं गणपतये नमः॥ ७॥

॥ गणेश गायत्री॥

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात्॥ ८॥

॥ गणेश रूप॥
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमं कुशधारिणं॥
रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजं॥

रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससं॥
रक्तं गन्धानुलिप्तान्गं रक्तपुष्पैहि सुपूजितं॥
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतं॥
अविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परं
एवं धायेयति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः॥ ९॥

॥ अष्ट नाम गणपति॥

नमो व्रातपतये॥ नमो गणपतये॥
नमो प्रमथपतये॥
नमस्ते अस्तु लम्बोदराय
एकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय
श्री वरदमूर्तये नमो नमः॥ १०॥

॥फल श्रुति॥

एतदथर्वशीर्षं योधीऽते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्वविघ्नैर्ण बाध्यते। स सर्वतः सुखमेधते।
स पञ्चमहापापत् प्रमुच्यते।
सायमधीयनो दिवसकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधीयानो रत्रिकृतं पापं नाशयति।
सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति।
सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति।
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय ना देयं।
यो यदि मोहाद्दास्यति। स पापीयान् भवति।
सहस्त्रावर्तनात् यं यं काममधीते।
तं तमनेन साधयेत्॥ ११॥

अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मि भवति॥
चतुर्थ्यामनश्नन जपति स विद्यावान् भवति॥
स यशोवान् भवति॥
इत्यर्थवर्णवाक्यं। ब्रह्माद्याचरणं विद्यात्।
न बिभेति कदाचनेति॥ १२॥

यो दूर्वांकुरैर्यजति॥ स वैश्रवणोपमो भवति॥
यो लाजैर्यजति॥ स यशोवान् भवति॥
स मेधावान् भवति॥
यो मोदकसहस्त्रेण यजति। स वाञ्छितफलंवाप्नोति॥
यः साज्यसमिद्भिर्यजति।
स सर्वं लभते स सर्वं लभते॥१३॥

अष्टौ ब्रह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा
सूर्यवर्चस्वि भवति।
सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ
वा जपत्वा सिद्धमन्त्रो भवति॥
महाविघ्नात् प्रमुच्यते॥ महादोषात् प्रमुच्यते॥
महापापात् प्रमुच्यते॥
स सर्वविद्भवति। स सर्वविद्भवति॥
य एवं वेद इत्युपनिषत्॥१४॥

॥शान्ति मन्त्र॥
ॐ सहनाववतु॥ सहनौभुनक्तु॥
सह वीर्यं करवावहै॥
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयां देवः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः॥
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः॥१॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः॥
स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्तिनो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
ॐ शान्तिः॥ शान्तिः॥ शान्तिः ॥